Tuesday, June 29, 2010

लोग चाहते हैं

सब लोग चाहते हैं
कि अध्यापक पुरुषोचित प्रतिक्रिया न करें
भले ही छात्राएं
प्रगल्भ नायिका सुलभ कटाक्ष करती रहें
गो कि यह तो स्वतंत्रता और अधिकार से जुदा मसला है
पुंसत्व की सक्रियता से होगी हानि
नैतिकता की , गरिमा की और समांज की
बन गया है सामाजिक प्रतिमान
स्त्रियों की सुरक्षा के क़ानूनी विधान
कि इस हद के आगे
मर्दों की हरकत मणि जाएगी विरुद्ध
और प्रतिपक्ष ?
कि वे तो सताए हुए हैं युगों-युगों के
उनका कूछ भी किया जाना
सबलीकरण का क्षीण दृष्टान्त होगा
बड़ा ही प्रचंड काल-खंड है यह
जहाँ अकेला है हर कोई
चाहे हार में या जीत में
कोई पुरुष है, कोई स्त्री ; कोई सवर्ण है तो कोई दलित
कहीं कोई मनुष्य नहीं
न ही मनुष्यता,
गोया कुछ कानून है और कुछ सामाजिक मर्यादाएं
फिर भी चाहते हैं सब लोग
कि न करें अध्यापक पुरुषोचित कृत्य
यह यौन शोषण है गिर्द कड़ी स्त्रियों का
स्त्रियों की तो बात न करें
वह तो ज़माने की सताई हुई हैं .... ।

3 comments:

B L Karn said...

wah wah....
Bahot dino baad aapki uttejit kavita padhne ko mili.

chashm-e-baddoor said...

Badhai.
Mera maanana hai ki ye kavita kisi bhi surat me feminism ke viruddha nahi hai. Haan striyon ke liye banaye gaye kanoono se barbaad hoti pariwarik sanstha ke kai chitra aankhon me jarur ukerti hai. Isko samajhna bahot jaruri hai ki kanoon ki had aur ka manushyata ka dayra kya hai.

रवीन्द्र दास said...

dhanyavad B L Karn & Chashmebaddoor,
shayad kavita ko sahi paath mil gayaa hai.