Friday, May 21, 2010

चुपके से अगर कुछ कहे कोई

चुपके से अगर कुछ कहे कोई
तुम चींख न देना खुश होकर
वरना हरियाली की रौनक धूमिल पड़ जाये
कौन कहे !
हर वक्त बदलता रहता है
यह वक्त बहुत मनमौजी है
पल-पल में जीने मरने की
सख्त हिदायत पहले भी कानों में सभी के
डाली थी
पर हम थे बैठे झूले पर
सो बात हवा में तैर गई
झूले के गोतों-गोतों में सावन के कल्पित गाने थे
वे तब बिलकुल अनजाने थे
वे आज तलक अनजाने है
तब भी तो हवा के झोकों ने
जो हौले से सहलाया था
हम लुका-छिपी में मस्त रहे
कोयल के नकली गानों को
समझा कि मधुर-संगीत है ये
पर वक्त ठहरता, बता, कभी
दो पल ठहरो, मैं आता हूँ
मैं गया कहाँ ? कोई ढूंढे
कुछ सूखी रेत किनारे पर
जिसपर मैं लिखता हूँ तुमको
गुदगुद सा होता है मन में
सिहरन सी होती है तन में
मैं आज अकेला हूँ, कविता
लिखता हूँ
तब भी लिखता जब तुम भी थे
तब वक्त ठहरता था शायद
पर जहाँ कहीं हो अब सुन लो
चुपके से अगर कुछ कहे कोई
तो ध्यान-जतन से रख लेना
बन जाएगा वह आइना
चुपके से अगर कुछ कहे....... ।

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