Friday, April 23, 2010

कीड़े

मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ
कि कीड़े घृणा के काबिल हैं
अथवा दया या सहानुभूति के ?
ये बहुधा ऐसे ही पनप जाते हैं
जबकि हमें लगते हैं पूर्णतः अवांछित।
प्राकृतिक न्याय है
जो भाषा के जरिये अनायास शामिल हो जाते हैं
हमारी गलियों में।
चंद अभिचारों की बात न करें
तो नहीं कहता है कोई धर्म
कि जीव-हिंसा करो ......
हम मनुष्य,
पाप का जाया कहते हैं उन्हें
और कहते हैं गंदगी की पैदाइश
जिन्हें न तो गंदगी का पता है,
न ही किसी पाप का
सचमुच बड़ी दयनीय है
कीड़ों की हालत
कितनी ?
मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ!

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